जितनी जल्दी हो सके बच्चों को मानसिक स्वास्थ्य की जानकारी देनी चाहिए

जितनी जल्दी हो सके बच्चों को मानसिक स्वास्थ्य की जानकारी देनी चाहिए

नरजिस हुसैन

किसी भी देश के विकास में वहां के नौजवानों का बहुत बड़़ा हाथ होता है। युनीसेफ के मुताबिक पूरी दुनिया में किशोरों की कुल आबादी 1.2 अरब है। भारत में किशोरों की आबादी सबसे ज्यादा है। 2001 की जनगणना बताती है कि देश में 14 साल से कम किशोरों की आबादी कुल आबादी की 35.3 प्रतिशत है जबकि, 18 साल के कम के 41 फीसद किशोर हैं जो अपनेंआप में एक बड़ी तादाद है। लेकिन, अफसोस की बात यह है कि इस आबादी के मानसिक स्वास्थ्य को उतनी तवज्जो नहीं मिल पा रही है जिसके वह हकदार हैं।

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बच्चों और किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े तमाम पहलुओं पर विस्तार से अपनी बात रख रहे हैं डॉक्टर राजेश सागर जो अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी ऐम्स में मनोविज्ञान विभाग में प्रोफेसर है और इसके अलावा इन मुद्दों पर लंबे समय से काम कर रहे हैं। डॉक्टर सागर देश और विदेश की पत्रिकाओं, वैज्ञानिक प्रकाशनों और रिपोर्टों में अपना बेशकीमती योगदान लगातार देते रहे हैं। दिसंबर, 2019 में जानी-मानी पत्रिका लैंसेट साइकियाट्री में “इंडिया स्टेट-लेवल बर्डन इनिशिएटिव” नाम से भारत में किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य पर एक चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई जिसको दिशा दी डॉक्टर सागर ने।

रिपोर्ट पढ़ने के लिए क्ल्कि करें

https://www.thelancet.com/journals/lanpsy/article/PIIS2215-0366(19)30475-4/fulltext

सवाल- देश-दुनिया के मौजूदा हालात को देखते हुए क्या मानसिक स्वास्थ्य को एक विषय के तौर पर स्कूलों में पढ़ाया जाना चाहिए और इसकी जानकारी कब से देनी शुरू करनी चाहिए?

जवाब- यह एक बहुत अहम मुद्दा है मेरी राय है कि मानसिक स्वास्थ्य को एक विषय के तौर पर स्कूलों के पाठ्यक्रम में जोड़ा जाना चाहिए। मानसिक स्वास्थ्य भी पढ़ाई का एक विषय है। बच्चों को मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य और उससे जुड़ी जानकारियों के बारे में स्कूल स्तर पर जितनी जल्दी मालूम हो उतना अच्छा है मिसाल के तौर पर किस तरह मादक द्रव्यों से बचें, अपनी मानसिक परेशानियों को कैसे बताया जाए या कैसे गुस्से को काबू करें वगैरह। हर विद्यार्थी को आज मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरुक होना जरूरी है।

स्वास्थ्य मंत्रालय ने इसे पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिहाज से 6वीं-10वीं कक्षा के बच्चों के लिए 18 संस्करणों में बुकलेट बनाई है। इसमें अगल-अलग पाठों के जरिए स्वास्थ्य और उससे जुड़े मुद्दों के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है लेकिन, फिलहाल किन्हीं कारणों से यह अब तक पाठ्यक्रम में शामिल नहीं कराया जा सका है। दरअसल, स्कूलों का कहना है कि बच्चों पर पहले ही पढ़ाई का इतना बोझ है कि उसमें मानसिक स्वास्थ्य को एक विषय के तौर पर शामिल किया गया तो कहीं यह बच्चों के लिए बड़ी समस्या न बन जाए।

सवाल- दिल्ली के करीब 1,000 सरकारी स्कूलों में सरकार ने नर्सरी से कक्षा आठ तक के बच्चों के लिए हैप्पीनेस करीकुलम पिछले साल शुरू किया था जिसमें बच्चों को 45 मिनट का पूरा एक हैप्पीनेस पीरियड रखा गया। क्या आपको यह लगता है कि यह एक पीरियड स्कूल काउंसिलर की भूमिका अदा करता है?

जवाब- देखिए मुझे ठीक तौर पर यह नहीं मालूम कि उस पाठ्यक्रम का कंटेंट क्या है। हालांकि, सुना है इस बारे में लेकिन, इसके साइंटिफिक मेथेड्स क्या है या उसकी पूरी रूपरेखा क्या है, उसको कौन कर रहा है, उसकी स्वीकार्यता कितनी है और विशलेषण किया है या नही इन तमाम बातों पर निर्भर करता है। क्योंकि मेरा मानना है कि हैप्पीनेस या खुशी अपनेंआम में एक अस्पष्ट शब्द है जिसे नापा नहीं जा सकता। हां, जहां तक  बात आती है कि यह स्कूल काउंसिलर की जगह ले रहा है या नहीं तो इस बारे में साफतौर से कुछ भी कहना मुश्किल है। 

सवाल- दिल्ली के सरकारी और प्राइवेट स्कूल के बच्चों को क्या मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानियां अलग-अलग होती है?

जवाब- हालांकि, ऐसी कोई स्टडी या रिसर्च तो नहीं है कि जिसके आधार पर यह बात कही जाए लेकिन, पूरी दुनिया में ऐसा देखा गया है कि जहां आर्थिक रूप से कमजोर बच्चे होते हैं वहां समस्याएं कुछ अलग होती है लेकिन, अपने देश में मैं ऐसा नहीं मानता। हमारे देश में आजकल प्राइवेट और सरकारी दोनों ही स्कूल लगभग समान हो गए हैं। पढ़ाई का स्तर बेहतर होने के साथ ही आज लो क्लास के अलावा मिडिल क्लास भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेज रहा है और इसी तरह मिडिल आय वर्ग के परिवार भी अब प्राइवेट स्कूलों को अफोर्ड कर पा रहे हैं। तो इस लिहाज से पढ़ाई और पैसे की अब तक जो खाई थी वह पटने लगी है। मेरी नजर से मानसिक स्वास्थ्य की बात करें तो किशोरों के मुद्दे ज्यादा अहम है और उसे सरकारी बनाम प्राइवेट की बहस से अलग रखें।

सवाल- क्या स्कूलों में टीचरों को मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य के बारे में समय-समय पर ट्रेनिंग देना जरूरी मानते हैं आप?

जवाब- मेरा मानना है कि टीचरों को मानसिक स्वास्थ्य की ट्रेनिंग देना बहुत जरूरी है हालांकि, बीएड की पढ़ाई में एक विषय मनोविज्ञान भी होता है। लेकिन, मैं यह मानता हूं कि हम सबकी अपनी एक निर्धारित भूमिका होती है। टीचर का पहला काम पढ़ाना है टीचर काउंसिलर का रोल नहीं कर सकती और इसी तरह काउंसिलर टीचर की भूमिका में काम नहीं कर पाती।

सवाल- क्या यह मानना सही होगा कि खुशहाल बच्चे को किसी काउंसिलर की जरूरत नहीं पड़ती? क्योकि अक्सर कांउसिलर इस बात पर जोर देते हैं कि खुश बच्चे को कांउसिलर की जरूरत नहीं होती। 

जवाब- यह बात सही है कि अगर कोई बच्चा खुश है तो उसे किसी मदद की जरूरत नहीं होती। अगर माता-पिता बच्चे को सकारात्मक माहौल दे रहे है, उसकी परवरिश अच्छी तरह से कर रहे हैं तो बच्चे को किसी मदद की जरूरत नहीं होती है लेकिन, यह तो यह एक आदर्श स्थिति है और आदर्श स्थिति तो दरअसल, बहुत कम होती है। क्योंकि कभी-न-कभी किसी को भी जीवन में मदद की जरुरत पड़ सकती है ऐसे में वह किस तरह परेशानी का सामना करे यह सीखना भी जरूरी है। बीमार होने के बाद ही डॉक्टर के पास जाया जाए यह जरूरी तो नहीं। आमतौर पर हमारे देश में रोकथाम पर ज्यादा भरोसा नहीं किया जाता। इसलिए मानसिक स्वास्थ्य में यह बहुत जरूरी है कि हम पहले से ही खुद को जागरुक बनाएं।

सवाल- किसी निम्न तबके के बच्चे को अगर मानसिक विकारों के चलते दवाइयां लेनी पड़ रही है जो उसकी पहुंच से दूर है तो क्या इन दवाइयों के अलावा कोई और विकल्प की मदद भी ली जा सकती है?

जवाब- इसमें निम्न या उच्च तबके की बात नहीं है क्योंकि तमाम सरकारी अस्पतालों में दवाइयों से लेकर पूरा इलाज मुफ्त है। बल्कि यहां मैं यह भी बताना चाहूंगा कि मानिसक स्वास्थ्य पर हालिया जो कानून बना है उसमें अब सरकार की ही यह जिम्मेदारी तय कर दी गई है कि वह किसी भी जरूरतमंद को इलाज की सुविधाएं दें। हालांकि, ये सुविधा जल्द ही आने वाले वक्त में उपलब्ध कराई जाएगी। बच्चों के बजाए किशोरों में दवाइयों की जरूरत ज्यादा पड़ती है लेकिन, सिर्फ दवाइयों पर ही उन्हें नहीं छोड़ा जाता बल्कि जरूरत के हिसाब से साइको थैरेपी भी दी जाती है। इसके अलावा योगा और मेडिटेशन की भी मदद ली जाती है। दवाई का काम दवाई करती है और योगा और मेडिटेशन एक बाहरी मदद की तरह काम करते है।

सवाल- मानसिक स्वास्थ्य सुविधा कानून, 2017 मानसिक विकारों के साथ जीने वाले लोगों के इलाज, अधिकार उनके पुर्नवास वगैरह के बारे में बात करता है लेकिन, कहीं भी 18 साल से कम उम्र के बच्चों या किशोरों के बारे में विस्तार से चर्चा नहीं करता दिखता। इसके क्या कारण हो सकते है?

जवाब- ये बात ठीक है कि कानून में अलग से चर्चा नहीं की गई है लेकिन, ऐसा तो महिलाओं और बुजुर्गों के बारे में भी है। यह कानून सभी के लिए है। हालांकि, उनके अधिकारों, विशेष प्रावाधानों और सुविधाओं के बारे में कानून में जिक्र है। हां, यह बात और है कि इस बारे में कानून में विस्तार से और भी बात की जा सकती थी। देश में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति भी मौजूद है जहां इस आबादी के बारे में बात की गई है लेकिन, खास किशोरों पर केन्द्रित करने से तो किशोरों की योजना ही नई चलानी होगी तो ये कानून और नीति अपनी जगह किशोरो या 18 साल से कम उम्र की आबादी के बारे में बात करते हैं।

सवाल- हमारे देश में किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए व्यापक नीतियों और योजनाओं की कमी दिखती है। यहां यह सवाल इसलिए भी अहम हो जाता है कि बीते साल लैंसेट की देश के किशोरों की मानसिक हालत पर आई रिपोर्ट में साफतौर से बताया गया है कि खासकर दक्षिण भारतीय राज्यों में आत्महत्या की शुरूआती उम्र किशोरावस्था ही है?

जवाब- ये बात बिल्कुल सही है। दरअसल विश्व में भारत में किशोरों में आत्महत्या एक बड़ी समस्या है। खासकर किशोर लड़कियां इसमें आगे हैं। ये रिपोर्ट तो अब सामने आई है लेकिन इससे पहले भी जो 2004 में लैंसेट में जो रिपोर्ट छपी थी उसमें साफ था कि देश में 100 मरने वालों में करीब 75 लड़कियां होती हैं जिनकी उम्र 15-19 साल की थी। यहां मैं यह भी बताना चाहता हूं कि अभी आत्महत्या को लेकर एक नीति भी बनाई जा रही है और उम्मीद है कि इसकी जानकारी स्कूलों और कॉलेजों को भी होगी। बहरहाल, इस दिशा में बहुत कुछ और किया जाना अभी बाकी है।

सवाल- हमारे पास आज कानून है, नीतियां हैं और कार्यक्रम भी हैं लेकिन इनकी मौजूदगी के अलावा भी वह कौन से अन्य भागीदार हैं जो अहम हैं और उनकी क्या भूमिका होनी चाहिए?

जवाब- मेरा मानना है कि अन्य भागीदारों का रोल इस दिशा में बहुत जरूरी है। बेहतर नतीजों के लिए सभी भागीदारों की सहभागिता होना बेहद जरूरी है। हमको लगता है कि मानसिक स्वास्थ्य सिर्फ स्वास्थ्य तक सीमित है लेकिन, इसमें समाज, शिक्षा, युवा और खेल का शामिल होना जरूरी है। इसके अलावा सरकार के अलग-अलग विभागों जैसे खेल मंत्रालय, युवा मंत्रालय, सामाजिक न्याय मंत्रालय और शिक्षा मंत्रालय की भागीदारी काफी मददगार साबित हो सकती है। यह स्वास्थ्य से भी आगे का जुड़ा मामला है तो इसमें सबकी भागीदारी हो तो बेहतर है।

सवाल- अक्सर देखा गया है कि सरकारी नीतियां बनती तो बड़ी सकारात्मक सोच के साथ लेकिन, अमल में आते-आते छोटी-छोटी कमियां इन बड़ी उम्मीदों पर पानी फेर देती है। तो इस तरह की छोटी कमियां कितना रोड़े अटकाती है?

जवाब- ये बात सही है कि नीतियों में छोटी-छोटी कमियां अक्सर बड़े नतीजे नहीं आने देती। सरकारी सिस्टम में दरअसल लोगों पर काम का बहुत बोझ है। मसलन, अगर कोई काउंसिलर लंबी छुट्टी पर गई तो उसकी जगह कोई और नहीं आता या  स्कूलों में काउंसिलर का कांट्रैक्ट सिस्टम या फिर इनफ्रास्क्चर की गैर-मौजूदगी तो मोटे तौर पर यह सब वह कमियां हैं जो नीतियों पर कहीं-न-कहीं असर डालती है और हम लक्ष्य से पीछे होते जाते हैं। दरअसल, देश में मानसिक बीमारियों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया है। अच्छी बात यह है कि अब फिर भी मानसिक स्वास्थ्य के बारे में खुलकर बात हो रही है हालांकि, इससे पहले ऐसा नहीं था।

सवाल- मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा डर, भय, शर्म और समाज का रवैया दरअसल कितना मायने रखता है। इसपर क्या राय है आपकी?

जवाब- देखिए समाज में मानसिक विकारों को लेकर डर तो है इससे मना नहीं किया जा सकता। लेकिन हां, यह डर अब पहले के मुकाबले कुछ कम जरूर हुआ है। परेशानियां तो बहुत है लेकिन, हमें इससे डर कर काम छोड़ने के बजाए आगे बढ़ते रहना होगा तभी इसपर कामयाबी पाई जा सकती है। तो रुकना नहीं है।  

सवाल- सीएसआर के जरिए ऐम्स दिल्ली के स्कूलों में मानसिक स्वास्थ्य जागरुकता कार्यक्रम शुरू करने जा रहा है। यह क्या है और इसके बारे में कुछ बताएं?

जवाब- यह प्रोजेक्ट अभी शुरू होना है जिसमें पूरी दिल्ली के सभी तरह के स्कूल शामिल होंगे। इसमें बाकी सभी भागीदारों को भी शामिल किया जा रहा है। आने वाले समय में इसे और बढ़ाकर मॉडल प्रोग्राम बनाने की कोशिश रहेगी। यह कार्यक्रम शुरू होने के बाद ही विस्तार से इसपर चर्चा की जाएगी।

 

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